प्रस्तावना :
मेरा विद्यालय बहुत ही अच्छा और भव्य था। वो एक मंदिर की तरह था ,जहा हम प्रतिदिन जाकर कुछ न कुछ ज्ञान अर्जित करते थे, हालाँकि कुछ शरारते भी किया करते थे,जिससे हमें हर कुछ दिनों के अंतराल पर मास्टरजी से डांट पड़ती थी..!
मेरे विद्यालय से जुडी मेरी कुछ रोचक कहानियां है। सर्वप्रथम मेरे विद्यालय का समय सुबह ७ बजे से ४ बजे का था।
प्रार्थना
हम प्रतिदिन जाते थे और वहा पहिले देवी माँ सरस्वती से प्रार्थना करते थे ताकि हमारी दिन की अच्छी शुरुआत हो सके और हमें ज्ञान मिल सके ,इन सब के पश्चात् हम अपने विषय के अनुसार पढाई आरंभ करते थे।
मुझे प्रतिदिन विद्यालय जाना अच्छा लगता था, मेरे विद्यालय का नाम स्वामी विवेकानंद विद्यालय, लखनऊ में है । मेरा यह विद्यालय संस्कृत विषय के लिए बहुत प्रचलित है |
यहाँ पर क्रीडा, व्यायाम अर्थात नृत्य की कलाएं भी सिखाई जाती है और यहाँ पर इस कला को प्रदर्शन करने के लिए वार्षिकोत्सव के दिन कला नृत्य का समारोह किया जाता है | अर्थात इसके लिए विजेता को क्रमंगत रूप से इनाम देके उसे सम्मानित किया जाता है |
विद्यालय का प्रांगण

छात्र-छात्राएं गणतंत्र दिवस ,स्वतंत्रता दिवस ,बालदिवस ,शिक्षक दिवस ,गाँधी जयंती विद्यालय का वार्षिकोत्सव जैसे विभिन्नवसरो पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमो में बढ़ -चढ़ कर हिस्सा लेते है इससे हमारते अंदर ईमानदारी धैर्य साहस आपसी सहयोग जैसे गुणों का विकास होता है
मेरे विद्यालय के प्रांगण में लगे अनेक फूल, फल के पौधे पुरे विद्यलय में मानो स्वछता और सुन्दरता का परिचय देते है, और हमारे विद्यालय में कोई माली नही था माली तो विद्यालय के लोग ही थे|
इसलिए हम सब मिलके अर्थात सम्पूर्ण विद्यालय पर्यावरण की रक्षा करने हेतु पेड़ –पौधे में पानी, खाद ,कीटनाशक की दवाईया का छिडकाव करते थे, जिससे उस विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करे वाला प्रत्येक शिष्य पर्यावरण के प्रति जागरूक रहे |
इसलिए हम लोग इनकी पूरी देखभाल करते हैं ।विद्यालय के द्वारा मिलने वाला महत्वपुर्ण ज्ञान :अक्सर हर विद्यार्थी को अपने जीवन में को लागु करना चाहिए |
विद्यालय में किये गये शरारते
यहाँ से शुरू होती है असली मस्ती जो कोई और नहीं करता था, जब की शुरुआत हमेशा से मेरे द्वारा ही होती थी अर्थात यदि विद्यालय के समय में कुछ शरराते नही किये तो आखिर क्या किये ?
वही मै और मेरा मेरा मित्र और मेरे सहपाठी लोग किसी की पुस्तके ,जूते और चप्पलें , यहा वहा छुपा देते थे , अरे येतो फिर भी ठीक ही था! जबकि मेरे सहपाठी तो औरो का लंच बॉक्स खा जाते थे,
कभी मास्टर जी को परेशान करना तो कभी उन्हें चिढ़ाना इत्यादि शरारते करते थे आप तो जानते होंगे पाठशाला में कैसे दिन बीते होंगे।
निष्कर्ष :
विद्यालय केवल पुस्तकीय ज्ञान का माध्यम नहीं है बल्कि ज्ञान प्राप्ति के हर अवसर यहाँ पर उपलब्ध होते है हां वो अलग बात है की हम्मेसे कुछ उन्हें सम्पूर्ण रूप से अपने जीवन में प्रज्वलित करते है
अतः हम हमेशा ही अपने स्कूल लाइफ अर्थात बचपन को याद करते है। क्योकि अपना बच्चपन कोई नहीं भूलता है /और भूलना भी नहीं चाहिए |